Monday, October 3, 2016

तेरा यूँ ही चले जाना

कब से उसके आने का इंतज़ार कर रहा था और वो अपने काम में व्यस्त दिख रही थी। तभी वो अपनी सीट से उठी तो मुझे लगा की वो मेरी तरफ़ आ रही है। पर ये क्या, वो तो दूसरे रास्ते से होती हुई वॉशरूम की तरफ़ चली गई। थोड़ी निराशा तो हुई, पर उम्मीद अभी भी थी की वो शायद वॉशरूम से होकर मेरी तरफ़ आएगी।

थोड़ी देर के इंतज़ार के बाद वो वापस अपनी सीट की तरफ़ आती हुई दिखी। तेज़ क़दमों से वो अपनी सीट तक पहुची, अपना सामान बैग में समेटा और बैग अपने कन्धे पर उठा लिया। मेरी बेसब्री और बढ़ गयी और मन में ये ख़याल बन चला की अब वो मेरी सीट की तरफ ही आएगी। मेरी धड़कन भी थोड़ी तेज़ हो गई और निगाहें उसके ऊपर ही टिक गईं।

अब वो कुर्सियों से किनारा करते हुए थोड़ा मेरी तरफ बढ़ी। अपनी नज़रें उठा कर मेरी तरफ देखी। मैं तो अपलक उसकी तरफ देखे जा रहा था। हमारी नज़रें मिली, वो थोड़ा मुस्कुराई, मैंने भी उसकी मुस्कराहट का जवाब मुस्कराहट से दिया।

पर ये क्या... वो फिर से अपनी दायीं ओर मुड़ गयी।

मेरा दिल ज़ोर से धड़का...। मन में आया की वो फ़िर से मुड़ कर देखे।

पर वो तो आगे ही जा रही थी...।

मेरा मन कह रहा था की वो एक आख़िरी बार मुड़ कर देखेगी...

पर मैं शायद गलत सोच रहा था... वो वापस नहीं मुड़ी... और मैं उसे बहार की तरफ जाते देखता रहा।

जहाँ तक वो दिख सकती थी, मैं उसे देखता रहा और जब वो मेरी नज़रों से ओझल हो गयी, तो मैं निराश, हताश सा वापस अपनी डेस्क पर देखने लगा। निराशा इस बात की नहीं थी की वो मिलने नहीं आयी, निराशा इस बात कि थी की उसने दोबारा मुड़ कर नहीं देखा।

1 comment:

Post a Comment