Sunday, June 7, 2009

आप सफ़र में समय कैसे बीतते हैं?

हर रोज की तरह आज भी मेट्रो में समय से पहुँच गया. मुझे अपने घर से ऑफिस तक पहुँचने में ३० मिनट का समय लगता है. और इस बीच में कोई भी जाना पहचाना चेहरा नहीं दीखता. इसी लीए मैं अपने फ़ोन पे गाने सुनते हुए ऑफिस तक पहुंचता हूँ. तो सारे रास्ते मेरे कान में गाने की धुन चलती रहती है.
खैर, तो आज भी मैं अपने नियमानुसार कान में मोबाइल फ़ोन की तार लगाये हुए मेट्रो में दाखिल हुआ. अन्दर काफी भीड़ थी. सो मैं किसी तरह से चिपक कर ऐसी जगह पहुँच गया, जहाँ की आसानी से खड़े हो सकूं और आजे जाने वालों से कोई परेशानी ना आये. भीड़ होने की वजह से लोग करीब-करीब एक दूसरे से चीपके पड़े थे. कुछ लोग (खास कर महिलाएं) बमुश्किल अपने को दूसरों से चीपकाने से बचने में कामयाब हो रही थी. थोडी देर खड़े होने के बाद मेरी नजर मेरे सामने खड़ी एक लड़की पे पड़ी. साधारण सा कद, जींस और टॉप पहने हुए, कंधे में कुछ बड़े आकर की पर्स और हाँथ में मोबाइल फ़ोन. वो अपने फ़ोन के साथ कुछ अठखेलियाँ कर रही थी. थोडी देर तक मैं उसके हाव-भाव को परखने की कोशिश करता रहा, पर मुझे कुछ समझ नहीं आया. फिर क्या था, मेरी इस बात को जानने में रूचि बढ़ गयी, की वो आखिर अपने फ़ोन में कर क्या रही है. मैंने अपने लम्बे कद का फायदा उठाते हुए अपने आप को करीब-करीब उसके सर के ऊपर झुका दिया. अब उसके मोबाइल को मैं अच्छे से देख सकता था. थोडी देर देखने के बाद मुझे मालूम पड़ा, की वो समय बिताने के लीए ऐसे ही अपने फ़ोन के साथ खेल रही थी. कभी फ़ोन का एस. एम्. एस. खोल रही थी, फिर उसे बंद कर रही थी और कभी फ़ोन-बुक को खोल कर के कुछ नीचे तक जा रही थी और फिर वापस ऊपर आ रही थी.
फिर मेरे दिमाग में एक सवाल आया, की आखिर लोग समय बिताने के लीए क्या करते होंगे ऐसे समय में. मैंने पहले अपने बारे में सोचा. शुरुआती दिनों में मैं अपने कॉलेज या इंस्टिट्यूट बस में जाया करता था. तब पहले बस की भीड़ को देख कर ही समय बिता दिया करता था. थोड़े दिनों में कुछ लोगों से जान पहचान हो गयी, जो उसी बस में रोज आते-जाते थे, तो फिर उनसे इशारों में ही बात किया करता था. फिर बात बात करने तक पहुंची और हमारा सफ़र आसन हो गया. अब सारे रास्ते उन जानने वालों से बात करते निकल जाता और समय का पता भी नहीं चलता. फिर नौकरी का दौर शुरू हुआ. इस दौरान शुरुआती दिनों में मैं अक्सर बस की खिड़की के बहार खंभों पे लगे इश्तेहारों को पड़ता रहता था. शायद तब मैं अपने घर से ऑफिस तक के बीच में दीखने वाले हर इश्तेहार को पहचानने लगा था. फिर मैंने एक मोटरसाईकिल ले ली. अब हर लाल-बत्ती पर आस पास खड़े लोगों को देखता था और पहचानने की कोशिश करता था, की कभी और देखा है या नहीं. उसके बाद मेट्रो में आने लगा, तो इसमें भी लोगों को पहचानने की कोशिश करता रहता हूँ, की पहले कभी देखा है या नहीं. पर अभी तक कोई जाना पहचाना नहीं मिला.
खैर, तो बात चल रही थी सफ़र के दौरान समय बिताने की. तो मैंने अपने इस अध्ययन को और आगे बढाया और मेट्रो में दूर तक, जहाँ तक मेरी नज़र जा सकती थी और जहाँ तक मैं लोगों को देख सकता था, मैंने पाया की ज्यादातर लोग फ़ोन पे या किसी और साधन पे गाने सुनाने में ब्यस्त हैं. कुछ लोग, जो किसी के साथ आये हैं, आपस में बात करने में लगे हैं. इन आपस में बात करने वालों में एक बड़ी संख्या युगल जोडों का है. कई लोग फ़ोन पे बात करते हुए समय बिता रहे हैं. पर ज्यादातर लोग मेरी तरह ही इस भीड़ में किसी जाने-पहचाने को ढूँढने की कोशिश कर रहे हैं.
तभी मेरे पीछे खड़े एक लडके की मोबाइल में बीप-बीप की आवाज आई. मैंने मुद कर देखा, शायद उसके फ़ोन में कोई संदेसा आया था. उसे पढ़ कर वो मुस्कुराया और वापस उस सन्देश का जवाब लिखने लगा. शायद वो इस सन्देश के जरिये ही अपना समय व्यतीत कर रहा था.
थोडी देर में मेरा स्टेशन आ गया. मैं मेट्रो से उतरा और अपने ऑफिस के लीए निकल पड़ा. वहां सीढियों पे कुछ जोड़े, जो शायद किसी स्कूल के ड्रेस में थे, बैठे थे और एक दूसरे के हाँथ को थम कर बैठे थे. मैंने फिर सोचा, क्या ये भी समय व्यतीत करने के लीए यहाँ आये हैं, मेरे इस सवाल का जवाब मिलता नजर नहीं आया और मैं तेजी से सीढियां उतर कर ऑफिस के रास्ते चल पड़ा.
जाते-जाते मेरे दीमाग में एक और सवाल बाकि रह गया, की आप सफ़र में समय कैसे बीतते हैं?

Thursday, February 19, 2009

वो... एक अज़नबी

मैंने अपनी घड़ी पे नजर डाली घड़ी में ११ बज कर मीनत हो हो चुके थे "उफ़ मै आज काफी देर हो गया हूँ" मैंने मन ही मन में सोच "िफस में फ़ोन कर ही चुका हूँ "अब बस जल्दी से मुझे िफस पहुचना है..." ये सोचते हुए मै मेट्रो के स्टेशन के अन्दर चला गया पुलीस वाले ने मेरी तलाशी ली और मैं plateform की सीिढयों की तरफ़ बढ़ गया

तभी
लीफ्ट का दरवाजा खुला और कुछ लोग बाहर निकले। मैं भी अब लीफ्ट की तरफ़ ही बढ़ चला था। जब तक मैं लीफ्ट तक पहुंचता लीफ्ट का दरवाजा बंद होने लगा था। मैंने अपना हाँथ बीच में दे कर दरवाजे को बंद होने से रोका। दरवाजा खुलते ही मैं लीफ्ट के अन्दर गया और िबना ये देखे की अन्दर कौन है, मैं बोल पड़ा... "आई ऍम सॉरी..."! "इट्स ओके..." सामने से जवाब आया। िकसी लड़की की आवाज सुन कर मैं पीछे मुड़ा। पर पीछे जो एक बार मैंने देखा, तो बस देखता ही रह गया।

काली जींस और लाल टॉप में वो मनो परी सी दीख रही थी। गोरा चेहरा, तराशे हुए नाक, काली बड़ी आँखें, खूबसूरती के साथ तराशी हुई पतली भौंहें, सुर्ख गुलाबी होंठ और कंधो तक बाल। मनो हर एक चीज उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे। कन्धों से थोड़े नीचे तक जाते हुए बालों को कान के ऊपर से पीछे की तरफ़ ले जाकर बांधने की कोशिश की गई थी, पर वो फ़िर भी कंधे के पास से आगे की तरफ़ लटक रहे थे और कुछ बाल तो मनो गाल को छूटे हुए होंठो तक पहुच रहे थे। बड़े गले वाली टॉप के ऊपर सोने की पतली सी चेन उसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा रही थी।
उसके कानों में छोटे-छोटे झुमके बार-बार उसके गालों को छूना चाहते थे।

"दरअसल मैं अपने ऑफिस के लिए देर हो रहा था। इसलीए मैंने लिफ्ट को रोका ... " मैंने अपनी इस कारस्तानी की सफाई देनी चाही। उसने भी सहमती में अपना सीर हीला दीया। पर शायद उसने मेरी बात सुनी नही। क्यूँकी उसके कानों में ईअर्फोन लगा हुआ था। एक हाँथ में गहरे भूरे रंग की पर्स और दूसरे हाँथ में मोबाइल फ़ोन। वो बार-बार अपने फ़ोन पे पतली-पतली उंगलीयों से कुछ कर रही थी। मैंने उसके फ़ोन में झांकने की कोशिश की। बड़ी मुश्कील से मैं फ़ोन के screen को देख पाया। वो अपने फ़ोन पे शायद गाने बदल रही थी।

अब तक मैं पुरी तरह से उसकी तरफ मुड़ चुका था और सीर्फ उसे ही देखे जा रहा था। तभी मेरे बगल से अपने-आप को बचाते हुए वो नीकलने लगी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ की plateform आ चुका था। मैं भी उसके पीछे-पीछे लीफ्ट के बहार आ गया। वो आगे जा कर दीवार का सहारा लेकर खड़ी हो गई। मेरा
िदल हुआ की उसके पास जाकर कम से कम उसका नाम तो पूछ ही लूँ। पर मैं इतनी िहम्मत नही जुटा पाया की उसके पास जाकर उसका नाम पूछ सकूं। मैं तो बस वहीँ पर खड़ा हो गया और उसे ही देखता रहा।

मुझे याद नहीं की आखीरी बार कब मेरे साथ ऐसा हुआ था, जब मैं कीसी से उसका नाम तक नही पूछ पाया था। मैं चुप-चाप खड़ा हो कर उसे देखे जा रहा था। वो कभी अपनी मोबाइल में गाने बदलती, कभी अपनी घड़ी में समय देखती और कभी plateform पे लगे display में ये देखती की मेट्रो के आने में अभी कीतना समय बाकी है। तभी सामने से मेट्रो आती हुई दीखी। थोड़ी ही देर में मेट्रो plateform पे खड़ी थी। मैं आगे बढ़ा। वो अभी भी वहीँ खड़ी थी। मेट्रो का दरवाजा खुल गया। वो
लीफ्ट की तरफ़ वापस जाने लगी थी। मैं हैरान था, की मेट्रो खड़ी है और वो अब कहाँ जा रही है। अब तक वो लीफ्ट के पास तक पहुँच चुकी थी।

"सुनिए ..." मैं चील्ला पड़ा था। पर तभी
लीफ्ट का दरवाजा खुला और वो लीफ्ट में चली गई। मैं तब तक लीफ्ट को देखता रहा, जब तक उसका दरवाजा बंद नही हो गया। मेरी नजर सीर्फ उसके चेहरे पे रूकी हुई थी। मैं शायद उसके चेहरे के भाव को पढ़ना चाह रहा था। आखीर-कार लीफ्ट का दरवाजा बंद हो गया और वो मेरी आंखों से ओझल हो गई। एक ख्याल आया की मैं भी नीचे जाऊँ। फ़ीर ख्याल आया की मेट्रो मेरे पीछे खड़ी है और मैं ऑफिस के लीए देर हो रहा हूँ। मैं वापस पीछे मुडा। पर मैं ये क्या देखता हूँ। मेट्रो का दरवाजा बंद हो चुका था। धीरे-धीरे मेट्रो ने सराकाना शुरू कर दीया था। मैं सीर्फ मेट्रो को जाते हुए देख रहा था।

मेरे मन में सीर्फ यही ख्याल था की वो आखीर वापस क्यूँ चली गई। शायद उसे कोई काम रहा होगा, शायद कीसी का फ़ोन आया होगा और वो उसका इंतज़ार करने के लीए वापस नीचे चली गई हो, या फ़ीर कुछ और....। मैं आज तक ये नही जान पाया की वो क्यूँ और कहाँ चली गई? फीलहाल तो मैं अकेला ही plateform पे था और अगली मेट्रो का इंतज़ार कर रहा था, उसी दीवार का सहारा लेकर जहाँ वो खड़ी थी। मैंने अपनी घड़ी में टाइम देखा, ११ बज कर १५ मीनट हो चुके थे। "उफ़..." मेरे मुंह से आवाज नीकली। मैंने plateform पर लगे display की तरफ़ देखा। अगली मेट्रो के आने में अभी ३ मीनट बाकी थे।