Thursday, February 19, 2009

वो... एक अज़नबी

मैंने अपनी घड़ी पे नजर डाली घड़ी में ११ बज कर मीनत हो हो चुके थे "उफ़ मै आज काफी देर हो गया हूँ" मैंने मन ही मन में सोच "िफस में फ़ोन कर ही चुका हूँ "अब बस जल्दी से मुझे िफस पहुचना है..." ये सोचते हुए मै मेट्रो के स्टेशन के अन्दर चला गया पुलीस वाले ने मेरी तलाशी ली और मैं plateform की सीिढयों की तरफ़ बढ़ गया

तभी
लीफ्ट का दरवाजा खुला और कुछ लोग बाहर निकले। मैं भी अब लीफ्ट की तरफ़ ही बढ़ चला था। जब तक मैं लीफ्ट तक पहुंचता लीफ्ट का दरवाजा बंद होने लगा था। मैंने अपना हाँथ बीच में दे कर दरवाजे को बंद होने से रोका। दरवाजा खुलते ही मैं लीफ्ट के अन्दर गया और िबना ये देखे की अन्दर कौन है, मैं बोल पड़ा... "आई ऍम सॉरी..."! "इट्स ओके..." सामने से जवाब आया। िकसी लड़की की आवाज सुन कर मैं पीछे मुड़ा। पर पीछे जो एक बार मैंने देखा, तो बस देखता ही रह गया।

काली जींस और लाल टॉप में वो मनो परी सी दीख रही थी। गोरा चेहरा, तराशे हुए नाक, काली बड़ी आँखें, खूबसूरती के साथ तराशी हुई पतली भौंहें, सुर्ख गुलाबी होंठ और कंधो तक बाल। मनो हर एक चीज उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे। कन्धों से थोड़े नीचे तक जाते हुए बालों को कान के ऊपर से पीछे की तरफ़ ले जाकर बांधने की कोशिश की गई थी, पर वो फ़िर भी कंधे के पास से आगे की तरफ़ लटक रहे थे और कुछ बाल तो मनो गाल को छूटे हुए होंठो तक पहुच रहे थे। बड़े गले वाली टॉप के ऊपर सोने की पतली सी चेन उसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा रही थी।
उसके कानों में छोटे-छोटे झुमके बार-बार उसके गालों को छूना चाहते थे।

"दरअसल मैं अपने ऑफिस के लिए देर हो रहा था। इसलीए मैंने लिफ्ट को रोका ... " मैंने अपनी इस कारस्तानी की सफाई देनी चाही। उसने भी सहमती में अपना सीर हीला दीया। पर शायद उसने मेरी बात सुनी नही। क्यूँकी उसके कानों में ईअर्फोन लगा हुआ था। एक हाँथ में गहरे भूरे रंग की पर्स और दूसरे हाँथ में मोबाइल फ़ोन। वो बार-बार अपने फ़ोन पे पतली-पतली उंगलीयों से कुछ कर रही थी। मैंने उसके फ़ोन में झांकने की कोशिश की। बड़ी मुश्कील से मैं फ़ोन के screen को देख पाया। वो अपने फ़ोन पे शायद गाने बदल रही थी।

अब तक मैं पुरी तरह से उसकी तरफ मुड़ चुका था और सीर्फ उसे ही देखे जा रहा था। तभी मेरे बगल से अपने-आप को बचाते हुए वो नीकलने लगी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ की plateform आ चुका था। मैं भी उसके पीछे-पीछे लीफ्ट के बहार आ गया। वो आगे जा कर दीवार का सहारा लेकर खड़ी हो गई। मेरा
िदल हुआ की उसके पास जाकर कम से कम उसका नाम तो पूछ ही लूँ। पर मैं इतनी िहम्मत नही जुटा पाया की उसके पास जाकर उसका नाम पूछ सकूं। मैं तो बस वहीँ पर खड़ा हो गया और उसे ही देखता रहा।

मुझे याद नहीं की आखीरी बार कब मेरे साथ ऐसा हुआ था, जब मैं कीसी से उसका नाम तक नही पूछ पाया था। मैं चुप-चाप खड़ा हो कर उसे देखे जा रहा था। वो कभी अपनी मोबाइल में गाने बदलती, कभी अपनी घड़ी में समय देखती और कभी plateform पे लगे display में ये देखती की मेट्रो के आने में अभी कीतना समय बाकी है। तभी सामने से मेट्रो आती हुई दीखी। थोड़ी ही देर में मेट्रो plateform पे खड़ी थी। मैं आगे बढ़ा। वो अभी भी वहीँ खड़ी थी। मेट्रो का दरवाजा खुल गया। वो
लीफ्ट की तरफ़ वापस जाने लगी थी। मैं हैरान था, की मेट्रो खड़ी है और वो अब कहाँ जा रही है। अब तक वो लीफ्ट के पास तक पहुँच चुकी थी।

"सुनिए ..." मैं चील्ला पड़ा था। पर तभी
लीफ्ट का दरवाजा खुला और वो लीफ्ट में चली गई। मैं तब तक लीफ्ट को देखता रहा, जब तक उसका दरवाजा बंद नही हो गया। मेरी नजर सीर्फ उसके चेहरे पे रूकी हुई थी। मैं शायद उसके चेहरे के भाव को पढ़ना चाह रहा था। आखीर-कार लीफ्ट का दरवाजा बंद हो गया और वो मेरी आंखों से ओझल हो गई। एक ख्याल आया की मैं भी नीचे जाऊँ। फ़ीर ख्याल आया की मेट्रो मेरे पीछे खड़ी है और मैं ऑफिस के लीए देर हो रहा हूँ। मैं वापस पीछे मुडा। पर मैं ये क्या देखता हूँ। मेट्रो का दरवाजा बंद हो चुका था। धीरे-धीरे मेट्रो ने सराकाना शुरू कर दीया था। मैं सीर्फ मेट्रो को जाते हुए देख रहा था।

मेरे मन में सीर्फ यही ख्याल था की वो आखीर वापस क्यूँ चली गई। शायद उसे कोई काम रहा होगा, शायद कीसी का फ़ोन आया होगा और वो उसका इंतज़ार करने के लीए वापस नीचे चली गई हो, या फ़ीर कुछ और....। मैं आज तक ये नही जान पाया की वो क्यूँ और कहाँ चली गई? फीलहाल तो मैं अकेला ही plateform पे था और अगली मेट्रो का इंतज़ार कर रहा था, उसी दीवार का सहारा लेकर जहाँ वो खड़ी थी। मैंने अपनी घड़ी में टाइम देखा, ११ बज कर १५ मीनट हो चुके थे। "उफ़..." मेरे मुंह से आवाज नीकली। मैंने plateform पर लगे display की तरफ़ देखा। अगली मेट्रो के आने में अभी ३ मीनट बाकी थे।