Thursday, October 6, 2016

बेसब्री

आज से पहले तो ऐसा नहीं हुआ था। इतनी बेसब्री से अब तक किसी चीज का इंतज़ार नहीं किया था मैंने। पर आज न जाने क्यूँ इंतज़ार इतना ज्यादा था की अपनी डेस्क पर बैठे-बैठे कभी अपनी कम्प्यूटर की स्क्रीन देखता तो कभी अपने फ़ोन पे झाँकता। एक-एक पल मनों घंटों जैसा लग रहा था। आज इतनी हिम्मत जुटा कर  फेसबुक पर पहली बार उसकी तारीफ़ में कुछ लिखा जो था। और फिर इंतज़ार कर रहा था की वो क्या कहती है इस पोस्ट के बारे में। कभी लगता वो फेसबुक पर ही जवाब देगी। फिर सोचता शायद फ़ोन पे ही मैसेज करे। फिर ये भी ख्याल आता की शायद चैट मैसेंजर पर लिख दे। जो भी जवाब आने के साधन दिखाई दे रहे थे वो सब मैं बारी-बारी से देख रहा था।

थोड़ी ही देर में फेसबुक पर पहला लाइक आया। पर ये क्या, ये तो किसी और का लाइक था। मन में थोड़ी निराशा हुई। फिर सोचा की अभी कहीं व्यस्त होगी शायद। आज ऑफिस भी तो नहीं आयी है। कुछ जरुरी काम में उलझी होगी शायद। फिर दिल को ये कह कर दिलासा दिलाया की मेरी तरह वो कम्प्यूटर के सामने थोड़े न बैठी होगी की फेसबुक पे मेरा पोस्ट देखते ही लाइक या कमेन्ट करेगी। जब उसको फुर्सत होगी तभी फेसबुक देखेगी और तभी तो कुछ जवाब देगी। मैं भी घर पे होता हूँ तो देर से ही फेसबुक देखता हूँ...। खुद को थोड़ा समझा रहा था इतने में २-३ लाइक्स आ गयी थीं जो की दूसरे दोस्तों ने की थी।

अब मैं थोड़ा अपने काम में लग गया था, पर अभी भी दिमाग में फेसबुक का वो पोस्ट ही चल रहा था, जिसमे मैंने इशारों-इशारों में उसके बारे में लिखा था। मन में अनेक तरह के भाव आ-जा रहे थे। एक बार तो ये भी ख़याल आया की कहीं ऐसा तो नहीं कि वो मेरी भावना को समझ ही नहीं पाए और कोई जवाब ही न दे। पर फिर खुद को समझाता कि वो मेरी बात जरूर समझ जाएगी। मैं ये सब सोच ही रहा था की फ़ोन पे आवाज आयी। मैंने जल्दी से अपने फ़ोन को उठाया  तो किसी दोस्त का उसी पोस्ट के ऊपर कमेन्ट आया था। मेरे चेहरे के भाव ख़ुशी से निराश की तरफ बदल गए। अपने दोस्त को मन-ही-मन कोसा 'कोई काम नहीं है इस निकम्मे को। सारा दिन फेसबुक पे बैठा रहता है।'

आख़िर शाम हो गयी पर उसका कोई जवाब नहीं आया न लाइक , न कमेन्ट न ही कोई मैसेज। भारी मन से घर के लिए चल पड़ा। रास्ते भर फ़ोन पर फेसबुक चेक करते आया की शायद अभी कुछ आ जाये। घर पहुँच कर जैसे-तैसे कपडे बदले और निराश मन से सोफे पर बैठा। माँ ने पूछा की तबियत तो ठीक है न... तो बोल दिया की ऑफिस में बहुत काम था सो थक गया हूँ। फिर सोफे पे सिर टिका कर छत की तरफ़ शुन्य में देख रहा था की तभी फ़ोन की स्क्रीन जली। फ़ोन उठा कर देखा तो उसका नाम लिखा था। उसमें लिखा था की उसने अभी-अभी मेरी पोस्ट को लाइक किया था। जल्दी से फेसबुक खोला और इंतज़ार करने लगा की वो कुछ लिखेगी... काफी देर के इंतज़ार के बाद भी कोई कमेंट  नहीं आया। थक कर फ़ोन सोफे पर रख दिया और फिर से सोफे से सिर टिका कर छत की तरफ़ देखने लगा। काफी देर बाद फिर से फ़ोन पे मैसेज का टोन बजा इस बार उठाया तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैसेज में लिखा था की उसने मेरी पोस्ट पर कमेन्ट किया है। झट से फेसबुक खोला और अपनी पोस्ट पे गया। पर कमेंट देख कर मेरी सारी ख़ुशी जाती रही। जिसका मुझे डर सता रहा था वही हुआ। उसने लिखा था "बहुत बढ़िया लिखा है तुमने... वैसे, ये है किसके लिए?" मन में आ रहा था की लिख दूँ की तुम्हारे लिए ही था। पर हिम्मत नहीं कर पाया। फ़ोन की स्क्रीन जल्दी से बंद की, झटके से फ़ोन को सोफे पर पटका और वापस सोफे से सिर टिका कर छत की तरफ देखने लगा। भाव-शून्य, अपलक, स्तब्ध सा गहरी साँस लेते हुए छत से लटके पंखे को ददेर तक देखता रहा और आगे से ऐसे पोस्ट कभी न लिखने के बारे में सोचता रहा....।

Monday, October 3, 2016

तेरा यूँ ही चले जाना

कब से उसके आने का इंतज़ार कर रहा था और वो अपने काम में व्यस्त दिख रही थी। तभी वो अपनी सीट से उठी तो मुझे लगा की वो मेरी तरफ़ आ रही है। पर ये क्या, वो तो दूसरे रास्ते से होती हुई वॉशरूम की तरफ़ चली गई। थोड़ी निराशा तो हुई, पर उम्मीद अभी भी थी की वो शायद वॉशरूम से होकर मेरी तरफ़ आएगी।

थोड़ी देर के इंतज़ार के बाद वो वापस अपनी सीट की तरफ़ आती हुई दिखी। तेज़ क़दमों से वो अपनी सीट तक पहुची, अपना सामान बैग में समेटा और बैग अपने कन्धे पर उठा लिया। मेरी बेसब्री और बढ़ गयी और मन में ये ख़याल बन चला की अब वो मेरी सीट की तरफ ही आएगी। मेरी धड़कन भी थोड़ी तेज़ हो गई और निगाहें उसके ऊपर ही टिक गईं।

अब वो कुर्सियों से किनारा करते हुए थोड़ा मेरी तरफ बढ़ी। अपनी नज़रें उठा कर मेरी तरफ देखी। मैं तो अपलक उसकी तरफ देखे जा रहा था। हमारी नज़रें मिली, वो थोड़ा मुस्कुराई, मैंने भी उसकी मुस्कराहट का जवाब मुस्कराहट से दिया।

पर ये क्या... वो फिर से अपनी दायीं ओर मुड़ गयी।

मेरा दिल ज़ोर से धड़का...। मन में आया की वो फ़िर से मुड़ कर देखे।

पर वो तो आगे ही जा रही थी...।

मेरा मन कह रहा था की वो एक आख़िरी बार मुड़ कर देखेगी...

पर मैं शायद गलत सोच रहा था... वो वापस नहीं मुड़ी... और मैं उसे बहार की तरफ जाते देखता रहा।

जहाँ तक वो दिख सकती थी, मैं उसे देखता रहा और जब वो मेरी नज़रों से ओझल हो गयी, तो मैं निराश, हताश सा वापस अपनी डेस्क पर देखने लगा। निराशा इस बात की नहीं थी की वो मिलने नहीं आयी, निराशा इस बात कि थी की उसने दोबारा मुड़ कर नहीं देखा।

Sunday, January 15, 2012

कैसा ये इश्क़ है

रात के २ बजे होंगे. हर तरफ सन्नाटा था. बाहर कुत्तों ने भी भौकना बंद कर दिया था. थोड़ी-थोड़ी देर में चौकीदार अपना डंडा पटकते हुए आता और चल जाता. इस सन्नाटे के बीच अचानक फ़ोन के थर्राहट से सिद्धी झल्ला कर उठी. उनींदी आँखों से उसने फ़ोन में झाँका और झटके से फ़ोन उठा कर अपने कान में लगा लीया.
"हैल्लो" उसने बड़ी बेचैनी से बोला.
फ़ोन के दूसरी तरफ की ख़ामोशी से सिद्धी समझ गयी थी की ये सिद्धार्थ ही है.
"मुझे पता था की तुम ही हो. कहाँ हो तुम?" सिद्धी ने बिना समय गँवाए पूछा.
"मुझे नहीं पता" थोड़ी बुझी हुई सी आवाज़ में ज़वाब आया.
"तुम्हे नहीं पता? ऐसी कैसी जगह हो कि तुम्हे पता ही नहीं?" सिद्धी की आवाज़ थोड़ी तेज़ हो गयी थी.
"मैं इंडिया में ही हूँ. पर ये जगह कौन सी है ये नहीं पता." थोड़ी नीरस सी आवाज़ में ज़वाब आया.
"देखो तुम नहीं बताना चाहते कि तुम कहा हो तो मत बताओ. पर ये तो बताओ कि तुम कैसे हो और तुम्हारा नंबर क्या है...? हैल्लो... हैल्लो... " इससे पहले कि सिद्धी अपनी बात पूरी करती, फ़ोन कट चूका था. सिद्धी ने वापस कई बार उसी नंबर पर फ़ोन कीया. पर बेकार. फ़ोन नहीं लगा. उसकी बेचैनी को देख कर ऐसा लग रहा था मनो वो इसी एक फ़ोन का इंतज़ार इतने दिनों से कर रही थी. पर फ़ोन आने के बाद बाद भी उसका सवाल अधुरा ही था कि वो है कहाँ...

सिद्धी अपलक फ़ोन पे छपे नंबर को देख रही थी और वो सारे दिन याद कर रही थी जब उसे सिद्धार्थ कि कोई खबर नहीं थी. वो लाख कोशीश के बावजूद भी ये पता नहीं कर पा रही थी कि सिद्धार्थ है कहाँ. उसके सारे फ़ोन, जिनसे उसने कभी सिद्धी को फ़ोन किये थे, बंद थे. उसने अपना फ़ेसबुक, ऑरकुट और दूसरे प्रोफाइल बंद कर दिए थे. उसके घर वालों को भी उसका पता या फ़ोन नंबर मालूम नहीं था. सिद्धी ने गूगल से भी उसके बारे में कई बार पूछा. पहले तो गूगल कुछ न कुछ ज़वाब दे देता था, पर अब वो भी सिद्धार्थ के बारे में कुछ नहीं बता पा रहा था. शायद सिद्धी के सिद्धार्थ को छोड़ कर बाकि तमाम सिद्धार्थ गूगल के लीए महत्वपूर्ण हो गए थे. पर सिद्धी के लीए उसका सिद्धार्थ कितना महत्वपूर्ण था वो गूगल को कभी समझ नहीं आएगा.


--- क्रमशः

Saturday, July 31, 2010

एक रिक्शे की सवारी

आज शायद जिंदगी का पहला दिन था, जब ऑफिस के लीए मैं समय से पहले निकल पड़ा था। हेड-फ़ोन पे गाने सुनते हुए मैं आराम से मेट्रो स्टेशन की तरफ जा रहा था। मेट्रो स्टेशन पर आज कल रिक्शों की भीड़ लगी रहती है। मैं उन रिक्शों के बीच से निकल कर मेट्रो स्टेशन के सीढ़ियों की ओर बढ़ रहा था की तभी सामने से एक खुशबू का झोंका आया। मैंने अपना ध्यान मेरे कान में बज रहे गाने से हटा कर सामने देखा तो बस देखता ही रह गया।

सामने से एक बहुत ही खुबसूरत लड़की सूर्ख़ लाल रंग के लिबास में लिपटी हुई चली आ रही थी। उसके होंठों का गुलाबी रंग दूर से ही दीख सकता था। उसके काले-सीधे बाल आँखों के ऊपर से होते हुए गाल और होंठ तक आ रहे थे, जिन्हें वो बार-बार अपने लम्बे-पतले हाँथ की लम्बी उँगलियों के सहारे कान के ऊपर से पीछे की तरफ कर रही थी। मैं उसकी झलक में मंत्र मुग्ध सा हो गया था।

वो सीढियां उतरती हुई, ठीक मेरे बगल से होते हुए नीचे उतर गई। उसके साथ-ही-साथ मैं भी पीछे मुड़ कर उसे जाते हुए देखता रहा। वो सीधे जा कर एक खली रिक्शे में बैठ गई। रिक्शे वाला दूसरी सवारी का इंतज़ार करने लगा, क्युकी वो २-लोगों को एक साथ रिक्शे में लेकर जाता है। मैं इस कदर मंत्र मुग्ध था, की कुछ समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या कर रहा हूँ। मैं चुप-चाप जा कर रिक्शे में बैठ गया। रिक्शे वाले ने कुछ पूछा, मैंने सिर्फ हाँ में जवाब दिया, और वो चल पड़ा। अब मुझे एहसास हुआ, की मेरे बगल में बैठी लड़की कुछ असहज महसूस कर रही है. इसके साथ ही, मैं उसे अब देख भी नहीं सकता था, क्यूँकी वो मेरे साथ बैठी थी।

"आप क्या कहीं नौकरी करती हैं?" मैंने बात शुरू करने की ग़रज से पूछा। हालांकि मेरा इरादा ये भी था की उसके बारे में कुछ और जान लूँ।
"नहीं, मैं अभी पढाई करती हूँ" उसने अपने मोबाइल में झांकते हुए बोला। इसके साथ ही वो चुप हो गयी और अपने मोबाइल में कुछ लिखने लगी। थोड़ी देर तक वो अपने मोबाइल के साथ ही खेलती रही। शायद वो मेरे साथ बैठने में सहज महसूस नहीं कर पा रही थी। मैं आदतन उसकी मोबाइल में झाँक कर देखना चाह रहा था, की वो कर क्या रही है, पर मैं मोबाइल को नहीं देख पा रहा था।

"क्या आप असहज महसूस कर रही हैं?" मैंने बात फिर से शुरू करते हुए पूछा।
"नहीं, ऐसी बात नहीं है।" उसने कहा।
"तो क्या पढाई करती हैं आप?" मैंने जानना चाह।
"मैं फैशन डिजाइनिंग कर रही हूँ" और इसके साथ ही वो फिर से अपने फ़ोन से खेलने में मशगुल हो गयी।
अब मुझे समझे में आ गया की मैं ३ किलोमीटर की रिक्शे की सवारी एक अनजान लड़की के साथ करने जा रहा हूँ, जबकि मुझे इस समय ऑफिस के लिए मेट्रो पे बैठा होना चाहिए था। "मैंने भी फैशन डिजाइनिंग की हुई है और आज-कल एक फैशन हाउस में काम करता हूँ।" सारा रास्ता मुझे चुप-चाप न काटना पड़े, इस ग़रज से मैंने कहा।
"कौन से इंस्टिट्यूट से पढाई की थी आपने?" उसने थोड़ी दिलचस्पी लेते हुए कहा।
मैंने एक इंस्टिट्यूट का नाम लेते हुए कहा "ओखला में है ये"।
"हाँ मैं जानती हूँ उसके बारे में। मेरा बड़ा मन था वहाँ से पढाई करने का। पर क्या करूँ, ऐडमिशन ही नहीं हो पाया।" उसने थोड़े से रुआंसे शब्दों में कहा.

इसके साथ ही हमारे बातों का सिलसिला चल पड़ा। पढाई, पसंद और दोस्तों के बारे में बात करते-करते कब उसका इंस्टिट्यूट आ गया, हमे पता भी नहीं चला। वहाँ उतर कर उसने पूछा, "आप कहाँ जा रहे हैं, ये तो मैंने पूछा ही नहीं"
"हाँ। मुझे आगे वाले बैंक तक जाना है" मैंने कहा।
"फिर अपना मोबाइल नंबर दे दीजिये, मैं कभी फ़ोन करुँगी आपको" उसने कहा।
मैंने अपना नंबर दिया और बदले में उसका नंबर पूछ कर नोट करने लगा। वो अब तक अपने दोस्तों के साथ अन्दर जा चुकी थी।

"किस बैंक में जाना है आपको?" रिक्शे वाले ने पूछा.
"यार, वापस मुझे मेट्रो स्टेशन छोड़ दो।" मैंने कहा।
"पर अभी तो आप कह रहे थे की आपको बैंक जाना है" उसने उत्सुक होते हुए पूछा।
"हाँ, सोच रहा था। पर अब नहीं जाना। तुम वापस चलो" मैंने थोड़े रूखे स्वर में कहा।

अब मैं अकेले ही उसी रिक्शे में वापस मेट्रो स्टेशन की तरफ चला आ रहा था। मैंने घड़ी देखी तो १० बज चुके थे। मेरे दिमाग में सिर्फ एक ही ख़याल आ रहा था, 'आज तो मैं जल्दी ऑफिस पहुंचना चाह रहा था, पर आज कुछ ज्यादा ही देर हो गयी।' मैंने अपना फ़ोन निकला, ताकी ऑफिस में बता सकूँ की मैं जरा देर देर से ऑफिस आऊंगा। फिर ११ बजे तक ऑफिस पहुँच जाने के ख़याल से ऑफिस फ़ोन करने का इरादा छोड़ दिया। अब मेरा रिक्शा खुली सड़क पे फर्राटे भरते हुए दौड़ रही थी। ठंडी और तेज हवा मेरे कानों को छूते हुए निकल रही थी और मैं सिर्फ बीते ३० मिनट को बार-बार अपने मन में दुहरा रहा था।



Wednesday, February 17, 2010

ये कैसा प्यार है?

मैं तेज कदमो से मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ा जा रहा था, ताकी समय से ऑफिस पहुँच सकूँ तभी किसी की पुकार सुन कर मैं पीछे मुड़ा पीछे से सुरेश कर आता देख कर मैं रुक गया
'कहाँ रहते हो आज - कल?' सुरेश ने आते ही पूछा और अपना हाथ मेरी तरफ बढाया
'इधर ही हूँ यार' मैंने उससे हाथ मिलते हुए कहा
'काफी दिनों से मिले नहीं कुछ ज्यादा ही व्यस्त दीख रहे हो आज - कल?' उसने शिकायत भरे लहजे में कहा
'यार, ऑफिस में इतना काम होता है की किसी से मिल नहीं पाता' मैंने उसे कहा और हम दोनों मेट्रो की तरफ चल पड़े
हम
मेट्रो स्टेशन पर पहुँचे ही थे तो देखा की सामने से मेट्रो निकल रही थी अब हमे अगली मेट्रो का इंतज़ार करना था हम दोनों एक जगह पर खड़े हो कर बातें करने लगे मैंने प्लेटफ़ॉर्म पर नज़र दौड़ाई हमारे अलावा दुसरे वाले छोर पर बेंच पर एक लड़की बैठी थी इसके अलावा प्लेटफ़ॉर्म पर और कोई नहीं था मैंने उस लड़की की तरफ गौर नहीं किया, क्यूँकी वो काफी दूर थी और सुरेश और मैं दोनों एक-दुसरे से बातें भी कर रहे थे थोड़ी देर में मैंने देखा की वो लड़की हमारे पास ही रही थी
'अरे मधु! तुम कब आई?' जब वो नजदीक गयी तो मैंने उसे पहचानते हुए पूछा
'मैं थोड़ी देर पहले ही गयी थी पर आपका इंतज़ार कर रही थी' उसने कहा
'अच्छा' मैंने सिर हिलाते हुए कहा 'मधु, ये है सुरेश इसका ऑफिस भी मेरे ऑफिस के पास ही है और सुरेश, ये है मधु, मेरी मेट्रो दोस्त, जो अक्सर मेरे साथ कोचिंग के लिए जाती है इसका कोचिंग अपने ऑफिस से दो स्टेशन आगे है' मैंने दोनों को एक-दुसरे से परिचय करवाया और दोनों ने एक-दुसरे का अभिवादन किया


अब हमारे बीच में बातों का सिलसिला शुरू हुआ मैंने सुरेश को बताया की कैसे हम दोनों काफी दिन तक एक ही मेट्रो में जाते थे और बातें नहीं करते थे फिर एक दिन मैंने जाकर मधु को पूछा था की वो रोज कहाँ जाती है? फिर उसने बताया था की वो मेडिकल की तैयारी के लिए कोचिंग करने जाती है और उस दिन के बाद से हम पढाई, मेडिकल और दूसरी तमाम विषयों पर बातें करने लगे मैंने सुरेश को ये भी बताया की उसे भी मेरी तरह गिटार, क्रिकेट, सचिन और सोनू निगम पसंद है इसी बीच में मेट्रो आ गयी और हम तीनो उसमे सवार हो गये मौका देख कर मधु ने सुरेश को ये भी बताया की कैसे शुरू में हम दोनों आस-पास ही खड़े रहते थे पर एक-दुसरे से बात नहीं करते थे और जब बात करना शुरू हुआ, तो हम पुरे रास्ते चुप नहीं होते हैं उसने ये भी बताया, की कभी-कभी हम बात करने के लिए मेरे ऑफिस वाले स्टेशन पर उतर कर काफी देर तक बातें ही करते रहते हैं इस बात पर हम तीनो ने जोरदार ठहाका लगाया और इसके साथ आस-पास खड़े लगभग सभी लोगों की नज़रें हम तीनो पर आ कर रुक गयी हमने स्थिति को भांपते हुए अपनी हंसी पर लगाम लगाया और वापस बातों में तल्लीन हो गए

'अच्छा मधु, तुमसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा' सुरेश ने कहा और सुरेश और मैं दोनों अब मेट्रो से उतर रहे थे बातों-बातों में कब रास्ता कट गया, ये पता ही नहीं चला
'तुम तो छुपे रुस्तम निकले यार' मेट्रो से निकल कर अब हम सीढियां उतर रहे थे तभी सुरेश ने कहा
'क्यूँ? क्या हो गया?' मैंने आश्चर्य से पूछा
'क्या बंदी पटाई है यार' एक झटके में सुरेश ने कहा
'क्या? क्या कहा तुमने, जरा फिर से कहना' मुझे शायद अपने कानों पे विश्वाश ही नहीं रहा था या शायद सुरेश ने जो कहा मैं उसका मतलब ही नहीं समझ पा रहा था
'यार मैं मधु की बात कर रहा हूँ थोड़ी कम उम्र की है, पर प्यार में उम्र कौन देखता है' सुरेश बहुत सहजता से ये सब कह रहा था जबकी मैं ये सब सुन कर असहज हो रहा था
'यार, ऐसी कोई बात नहीं है, वो सिर्फ मेरी एक दोस्त है उससे ज्यादा कुछ नहीं' मैंने सफाई देते हुए कहा
'यार, तू मुझसे छुपा नहीं सकता' उसने कहा
'अरे, अब इसमें छुपाने वाली कौन सी बात है? मैं सच बोल रहा हूँ' मेरी आवाज अब तेज हो गयी थी
'अच्छा, तो एक लड़की तुम्हारे लिए मेट्रो में इंतज़ार करती है, पुरे रास्ते तुमसे बातें करती रहती है, कभी-कभी स्टेशन पर खड़े होकर तुम देर तक बातें करते रहते हो, बिना इस बात की परवाह किये की तुम दोनों ही देर हो रहे हो, तुम्हे एक-दुसरे की पसंद और नापसंद के बारे में भी पता है और तुम कहते हो की वो तुम्हारी बंदी नहीं है तुम मुझसे छुपाने की कोशिश मत करो यार' उसने एक सांस में ये सब कह दिया
मेरा दिल कर रहा था की मैं सुरेश को इस बारे में यकीन दिलाऊं की वो सिर्फ मेरी दोस्त ही है मैं उसे बताना चाहता था की उसकी उम्र की मेरी भतीजी है मैं उसे ये भी समझाना चाहता था की अगर वो मेरी प्रेमिका होती, तो मेरे पास उसका मोबाइल नंबर तो जरुर ही होता, हम छुट्टी वाले दिन तो जरुर मिलाने जाते कहीं-न-कहीं पर शायद मैं ये समझ चूका था की सुरेश मेरी एक भी बात नहीं मानेगा और ज्यादा दलील देने पर वो यही समझेगा की मैं झूठ पे झूठ बोल रहा हूँ मैंने आगे कोई भी दलील नहीं दी अब तक हम सीढियां उतर चुके थे और अपने-अपने रास्ते की तरफ चल पड़े थे मेरे दिमाग में अब भी सुरेश के बातें चल रही थी कभी ग्लानी सी हो रही थी की एक छोटी सी लड़की को सुरेश मेरी प्रेमिका समझ रहा है और कभी प्रसन्नता का आभास भी हो रहा था की इतने दिनों से मैं ये क्यूँ नहीं सोच पाया था, जो सुरेश ने कुछ मिनटों में ही सोच लिया